शिक्षा व्यवसाय नही बल्कि हमारा गौरव है– देव दत्त शर्मा,कसौली, हिमाचल प्रदेश

हालातों को देखते हुए सरकार को कुछ सख्त कदम उठाने होंगे और शिक्षा मौलिक आधार का अक्षरहाक्षर पालन अनिवार्य किया जाना चाहिए। प्रत्येक भी • जनता बच्चे तक अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा को आम करना चाहिए कि भी व्यापारी लूट सूरत में कोई भी भा का कोई भी आदमी शिक्षा व्यवसायी बन कर भोले भाले अभिभावकों को शिक्षा के नाम पर न ही उनसे बेवकूफ न बना सके और न कर सके। इस मनमानी फीस वसूल कर
आयाम भी होते हैं, परन्तु हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि बिना शिक्षा के किसी देश, राज्य या परिवार की प्रगति संभव हो ही नहीं सकती। शिक्षा के बिना मानव पूछ विहीन पशु के समान है, हा संस्कृति के में सहायक होती है निर्माण में और मानव को अन्य चौरासी लाख मचा प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ भी बनाती है।
अब जरा विडंबना देखिए कि लोगों के जीवन को गढ़ने वाली ये पाठशालाएं आजकल एक समृद्ध व्यवसाय का रूप ले चुकी है जिसने अच्छी शिक्षा को पैसे वालों की धरोहर बना कर रख दिया है। अब साधारण तथा मध्यमवर्गीय परिवार इन फाइव स्टार से दीखने वाले स्कूलों को से टकटकी लगाकर ललचाई आंखों देखते हैं और सोचते हैं कि काश, काश
शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली सतत प्रक्रिया है, जिससे मनुष्य का न केवल बौद्धिक विकास होता है बल्कि उनका बच्चा भी ऐसे स्कूलों में पढ़ पाता। न जरा सोचिए कही हम ही तो इन सब के फूटी अंग्रेजी बोलने में भी स्वयं किया जाए तथा फीस इतनी हो कि निर्धन उसका शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी होता है। अनेकों शिक्षाविदों के द्वारा समय समय पर किए गए शोध इस का प्रमाण है। अब
न जाने हम सब अपने बच्चों को किस कोशिश कर रहे है। अधिकतर लोग यह लाये हमारे देश में शिक्षा का महत्व है ये के कमरों में हिंदी में अंग्रेजी माध्यम की सोचते हैं कि जो स्कूल जितना महगा होगा कर भी लेते हैं परंतु गांव देहातों में फीस बसती है, जो निर्धन वर्ग में आती है और वहां पढ़ाई भी उतनी ही उत्तम होगी बस इसी भ्रम में पड़ कर हम अधी बच्चों को करोड़ों बच्चे हर सुबह अपनी पीठ पर अतिशयोक्ति न होगी। आज यदि आज अनुकरणीय दौड़ में दौड़ पड़ते यदि फीस का जुगाड़ हो जाए उसके साथ उन्हें भी शहरियों के बराबर हक मिलना लाभ उठाते हुए खूब मन भावन मन लुभावन सब्जबाग दिखा कर हिप्नोटाइज़ करता है और हम, हम अपने बच्चों को रहा है कि
हा है।
शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं है हर रोज ग्रामों और शहरों में भारत के जाते हैं। हर माता-पिता की इच्छा रहती है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर एक महान और काबिल इंसान बने और दुनिया में के सपनों करने व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका अदा करती संपन्नता उस देश की जनसंख्या के साक्षरता के अतिरिक्त अनेकों अन्य •
है। स्पष्ट सी बात है कि किसी भी देश की साक्षरता अनुपात पर ही निर्भर करती है। यद्यपि संपन्नता को मापने के लिए ये शिक्षा के व्यापारी लोगों की मनःगति बहुत अच्छे से पढ़ चुके है। क्योंकि हर माता पिता अपनी सन्तान को डॉक्टर इंजीनियर से अतिरिक्त कुछ बनाना चाहते ही नहीं है जो बुरी बात भी नहीं परन्तु
केवल शहरों में ये हाल केवल में होता भाता परन्तु आजकल तो, गांवों में भी तो भी र किराये गली मोहल्ले में दो चार पढ़ाई हो रही है। जिसे यदि इंग्लिश न कह कर हिंगलिश माध्यम कहे तो कोई दवाई जाए तो तो हम देखेंगे कि इन स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढ़ने के लिए आते है, क्योंकि बड़ी-बड़ी वसूली की जाती ही अदा कर पाते है।
आज के आधुनिक दिखावे दौर में मनपसंद स्कूल में प्रवेश लेना ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। मध्यम पसंद के स्कूल में यदि पढ़ाना चाहे तो चांदी बटोरते हैं। को यदि आपकी इच्छा है तो उसकी फीस
बच्चे की क्षमता को कोई देख नहीं रहा तभी तो आज अच्छी और उच्च शिक्षा का निरन्तर व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालको के पी बारह हो रहे हैं। वे इसी भावना का लाभ या यूँ कहें शिक्षा के खुले बाज़ार में लूट में पढ़ाने का सपना नहीं देख मचा रखी है।
के हर वर्ष इन शिक्षा की दुकानों में एक तरफ ग्राहक बढ़ रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ स्कूल को फीस बढ़ती ही जा रही है है । क्या कभी किसी ने गौर किया कि जितनी रफ्तार से फीस रही है उतनी बढ़ ही गति से शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है? मानसिकता का लाभ शायद नही बल्कि ये स्तर दिन प्रतिदिन नीचे नीचे और नीचे ही गिरता जा रहा है। क्या कभी। किसीने सोचा है कि सबके लिये कौन जिम्मेवार है ? नहीं ल लिए जिम्मेदार तो नहीं?
ही आज पच्चास हजार से एक लाख तक अदा करनी पड़ सकती है। यही नहीं यदि आपको अच्छे स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाना है तो आपके बैंक बैलेंस भी अच्छा खासा होना चाहिये अन्यथा आप अपने का इस सकते।
आज पश्चिमी सभ्यता का हम पर पर ऐसा प्रभाव देखने मिलता है कि हम आजकल किसी की भी योग्यता को अंग्रेजी ज्ञान के पैमाने आँकने लगए हैं। जिसको जितनी की इस अंग्रेजी आती है उसको उतना ही बुद्धिमान समझा लगा है। लोगो जाने लगा लाभ उठाते हुए शिक्षा को शिक्षा के इन व्यापारियों ने वेस्टर्न कल्चर कि मोड़ दिया | आजकल लोग तरफ अपनी मातृभाषा या मां बोली को बोलने में शर्म महसूस करने लगे हैं तथा टूटी गौरवान्वित समझने लगे हैं। इस
” शिक्षा के क्षेत्र में इस मनमानी को रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह सबसे पहले शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक लगाये। सभी निजी शिक्षण संस्थाओं फीस का ढाँचा सरकार द्वारा स्वयं तय से निर्धन वर्ग के बच्चे भी उन शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सके जिन में की एक बड़ी आबादी ग्रामीण परिवेश जो इतने साधन संपन्न नहीं है कि शहर जा है। कर भारी भरकम फीस अदा कर सके
जहाँ तक बात है शहरों की वहाँ शिक्षा का व्यवसायी और व्यापारीकरण हो रेस / प्रतिस्पर्धा में आगे निकालने की तो संसाधन पर्याप्त मात्रा में होने के कारण वे दाखिला लेना चाहें क्योंकि भारत देश लोग इस दौड़ में कुछ सफलता हासिल ना होने के कारण कुछ लोग तो अपने स्कूल भेजने में असमर्थ हो गये हैं जो उनकी पहुंच से कास बहुत चाहिए। होते हैं। शिक्षा का व्यवसाय आज इतना फलफूल स्कूल वालों साथ कर दिया है। स्कूल अपने ही किसी सगे सम्बन्धी को उक्त विचार करना होगा कि शिक्षा कोई काम का ठेका दे देते हैं जिससे वो तो वर्गीय परिवार अपने बच्चों को उनकी लाभ लेते ही हैं साथ साथ सम्बन्धी भी इसे गौरव बना कर ही रखना होगा ताकि
दूर आज यदि समय की कोई मांग है तो बो हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार। यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया उनका और अपना नाम खूब रोशन करे में प्रइवेट शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप उसी महंगे रेस का हिस्सा बना देते हैये के साथ पुस्तक और स्कूल ड्रेस का व्यापार तो हमारे युवाओं का भविष्य अंधेरे को और अब भारतीय व्यवसाय नही बल्कि हमारा गौरव है और देश का हर एक बच्चा उपयुक्त और
हमारे स्कूल और हमारे देश की शिक्षा है, जिन्हें केवल पैसे वाले धनाड्य लोग
शायद नहीं पढ़ा सकते क्योंकि बड़े नामी अब स्पष्ट है कि शिक्षा का व्यापारीकरण गुणपूर्ण शिक्षा को ग्रहण कर अपनाऔर स्कूल में नर्सरी कक्षा में यदि प्रवेश दिलाने दिन प्रतिदिन फलफूल रहा है तो इस पर अपने देश का नाम विश्व में रोशन कर अंकुश कैसे लगे? आज शिक्षा के ऐसे सके।

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